Thursday, October 29, 2009

RashmiRathi - by Dinkar

रश्मिरथी, रामधारी सिंह दिनकर द्वारा रचित एक ऐसा काव्य जो दिल दिमाग को छु जाये. अभी पिछले ही हफ्ते हम बनारस से आ रहे थे तो मैंने यह पुस्तक ली हुई थी और पढ़ रहे थे. थोडी देर बाद हमें थोडा झपकी सी आ गयी तो एक महानुभाव जो कि बगल में बैठे थे, उन्होंने ये पुस्तक ले ली. दिनकर जी द्वारा रचित यह एक ऐसा काव्य है, जो किसी को भी बांध ले...और यही हुआ. ये साहब ऐसे चिपके कि इन्होने इस बात का भी ख्याल नहीं किया कि मैं इस पुस्तक को पढ़ रहा था. यद्यपि कि यह पुस्तक बहुत छोटी है, लेकिन जब रस ले कर इसे पढ़ा जाये तो थोडा समय लगाना तो स्वाभाविक है.
कुछ अंश मैं यहाँ भी प्रस्तुत करता हूँ....उसके बाद बताऊंगा कि इन महानुभाव ने मुझे पुस्तक वापस कर दी कि नहीं....:-)

यह काव्य मुख्यतः कर्ण के चरित्र कि ऊँचाइयों को चित्रित करता है. कर्ण का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था और इसका कारन उसका जन्मतः क्षत्रिय परन्तु लालन पालन सूतपुत्र कि तरह से होने के कारन था. कर्ण एक समय अर्जुन जैसे धनुर्धर के लिए भी भय सिद्ध होता है और गुरु द्रोणाचार्य इस बात से भयभीत रहते हैं...कि उनका अर्जुन को सबसे बड़ा धनुर्धर बनाने का प्रयत्न गलत हो जाता. भगवन कृष्ण भी एक आवसर पर कर्ण को दुर्योधन को छोड़ने को कहते हैं. कर्ण का व्रत अब तो दुर्योधन के साथ रहने का हो गया होता है....अतः वो भगवन कृष्ण को विनयपूर्वक मन कर देता है. यह प्रकरण अत्यंत ही संवेदना से भरा हुआ है. कर्ण के चरित्र का दूसरा पहलू दानवीर का है और इन्द्र को बहुत क्षुद्रता का अहसास होता है....जब कर्ण उनको कंवाच और कुंडल भी दान में दे देता है....मांगने पर. (इन्द्र का एक दूसरा बहुत ही ख़राब रूप दीक्षा - नरेन्द्र कोहली कि पुस्तक में भी था). एक दूसरे स्थान पर कुंती भी दान में अक्षय मांग लेती हैं...कर्ण कहता है....कि अगर अर्जुन कर्ण पर विजयी होता है तो ५ के ५ रहेंगे...अन्यथा अगर कर्ण अर्जुन पर विजय पायेगा तो उस दिन एक इतिहास रचेगा और पांडवों के पास आ जायेगा. इस तरह से कुंतइ ५ कि माता बनी रहेगी. कुछ और भी बहुत ही अच्छे उद्धरण हैं जो कि पढ़ने में बहुत आनंद देते हैं.

शुरू में ही युध(war) के बारे में कुछ पंक्तियाँ -


रण केवल इस लिए कि राजे और सुखी हों मानी हों, 
     और प्रजाएँ मिलें उन्हें वो और अधिक अभिमानी हों !
रण केवल इस लिए कि वो कल्पित अभाव से छूट सकें,
     बढ़ें राज्य कि सीमा और वो अधिक जनों को लूट सकें ||

ये पंक्तियाँ आज भी उतनी ही सच प्रस्तुत करतीं हैं जितना महाभारत के समय पर.
कुछ और पंक्तियाँ जो मुझे कार्य स्थल पर, या दैनिक जीवन में कहीं भी स्वाभाविक ही दिखतीं हैं....

क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप से जितना जल लेता है
    उससे अधिक वारी सागर भी उसे नहीं देता है |

ऐसी ही अनेक पंक्तियाँ हैं जो मन को बहुत भातीं हैं.


रश्मिरथी - On Wikipedia

-

No comments:

Post a Comment